Thursday, September 29, 2011

कनुप्रिया - तुम मेरे कौन हो


तुम मेरे कौन हो कनु
मैं तो आज तक नहीं जान पाई

बार-बार मुझ से मेरे मन ने
आग्रह से, विस्मय से, तन्मयता से पूछा है-
‘यह कनु तेरा है कौन? बूझ तो !’

बार-बार मुझ से मेरी सखियों ने
व्यंग्य से, कटाक्ष से, कुटिल संकेत से पूछा है-
‘कनु तेरा कौन है री, बोलती क्यों नहीं?’

बार-बार मुझ से मेरे गुरुजनों ने
कठोरता से, अप्रसन्नता से, रोष से पूछा है-
‘यह कान्ह आखिर तेरा है कौन?’

मैं तो आज तक कुछ नहीं बता पाई
तुम मेरे सचमुच कौन हो कनु !

अक्सर जब तुम ने
माला गूँथने के लिए
कँटीले झाड़ों में चढ़-चढ़ कर मेरे लिए
श्वेत रतनारे करौंदे तोड़ कर
मेरे आँचल में डाल दिये हैं
तो मैंने अत्यन्त सहज प्रीति से
गरदन झटका कर
वेणी झुलाते हुए कहा है :
‘कनु ही मेरा एकमात्र अंतरंग सखा है !’

अक्सर जब तुम ने
दावाग्नि में सुलगती डालियों,
टूटते वृक्षों, हहराती हुई लपटों और
घुटते हुए धुएँ के बीच
निरुपाय, असहाय, बावली-सी भटकती हुई
मुझे
साहसपूर्वक अपने दोनों हाथों में
फूल की थाली-सी सहेज कर उठा लिया
और लपटें चीर कर बाहर ले आये
तो मैंने आदर, आभार और प्रगाढ़ स्नेह से
भरे-भरे स्वर में कहा है:
‘कान्हा मेरा रक्षक है, मेरा बन्धु है
सहोदर है।’

अक्सर जब तुम ने वंशी बजा कर मुझे बुलाया है
और मैं मोहित मृगी-सी भागती चली आयी हूँ
और तुम ने मुझे अपनी बाँहों में कस लिया है
तो मैंने डूब कर कहा है:

‘कनु मेरा लक्ष्य है, मेरा आराध्य, मेरा गन्तव्य!’

पर जब तुम ने दुष्टता से
अक्सर सखी के सामने मुझे बुरी तरह छेड़ा है
तब मैंने खीझ कर
आँखों में आँसू भर कर
शपथें खा-खा कर
सखी से कहा है :
‘कान्हा मेरा कोई नहीं है, कोई नहीं है
मैं कसम खाकर कहती हूँ
मेरा कोई नहीं है !’

पर दूसरे ही क्षण
जब घनघोर बादल उमड़ आये हैं
और बिजली तड़पने लगी है
और घनी वर्षा होने लगी है
और सारे वनपथ धुँधला कर छिप गये हैं
तो मैंने अपने आँचल में तुम्हें दुबका लिया है
तुम्हें सहारा दे-दे कर
अपनी बाँहों मे घेर गाँव की सीमा तक तुम्हें ले आई हूँ
और सच-सच बताऊँ तुझे कनु साँवरे !
कि उस समय मैं बिलकुल भूल गयी हूँ
कि मैं कितनी छोटी हूँ
और तुम वही कान्हा हो
जो सारे वृन्दावन को
जलप्रलय से बचाने की सामर्थ्य रखते हो,
और मुझे केवल यही लगा है
कि तुम एक छोटे-से शिशु हो
असहाय, वर्षा में भीग-भीग कर
मेरे आँचल में दुबके हुए

और जब मैंने सखियों को बताया कि
गाँव की सीमा पर
छितवन की छाँह में खड़े हो कर
ममता से मैंने अपने वक्ष में
उस छौने का ठण्डा माथा दुबका कर
अपने आँचल से उसके घने घुँघराले बाल पोंछ दिए
तो मेरे उस सहज उद्गार पर
सखियाँ क्यों कुटिलता से मुसकाने लगीं
यह मैं आज तक नहीं समझ पायी!

लेकिन जब तुम्हीं ने बन्धु
तेज से प्रदीप्त हो कर इन्द्र को ललकारा है,
कालिय की खोज में विषैली यमुना को मथ डाला है
तो मुझे अकस्मात् लगा है
कि मेरे अंग-अंग से ज्योति फूटी पड़ रही है
तुम्हारी शक्ति तो मैं ही हूँ
तुम्हारा संबल,
तुम्हारी योगमाया,
इस निखिल पारावार में ही परिव्याप्त हूँ
विराट्,
सीमाहीन,
अदम्य,
दुर्दान्त;

किन्तु दूसरे ही क्षण
जब तुम ने वेतसलता-कुंज में
गहराती हुई गोधूलि वेला में
आम के एक बौर को चूर-चूर कर धीमे से
अपनी एक चुटकी में भर कर
मेरे सीमन्त पर बिखेर दिया
तो मैं हतप्रभ रह गयी
मुझे लगा इस निखिल पारावार में
शक्ति-सी, ज्योति-सी, गति-सी
फैली हुई मैं
अकस्मात् सिमट आयी हूँ
सीमा में बँध गयी हूँ
ऐसा क्यों चाहा तुमने कान्ह?

पर जब मुझे चेत हुआ
तो मैंने पाया कि हाय सीमा कैसी
मैं तो वह हूँ जिसे दिग्वधू कहते हैं, कालवधू-
समय और दिशाओं की सीमाहीन पगडंडियों पर
अनन्त काल से, अनन्त दिशाओं में
तुम्हारे साथ-साथ चलती आ रही हूँ, चलती
चली जाऊँगी...

इस यात्रा का आदि न तो तुम्हें स्मरण है न मुझे
और अन्त तो इस यात्रा का है ही नहीं मेरे सहयात्री!

पर तुम इतने निठुर हो
और इतने आतुर कि
तुमने चाहा है कि मैं इसी जन्म में
इसी थोड़-सी अवधि में जन्म-जन्मांतर की
समस्त यात्राएँ फिर से दोहरा लूँ
और इसी लिए सम्बन्धों की इस घुमावदार पगडंडी पर
क्षण-क्षण पर तुम्हारे साथ
मुझे इतने आकस्मिक मोड़ लेने पड़े हैं
कि मैं बिलकुल भूल ही गयी हूँ कि
मैं अब कहाँ हूँ
और तुम मेरे कौन हो
और इस निराधार भूमि पर
चारों ओर से पूछे जाते हुए प्रश्नों की बौछार से
घबरा कर मैंने बार-बार
तुम्हें शब्दों के फूलपाश में जकड़ना चाहा है।
सखा-बन्धु-आराध्य
शिशु-दिव्य-सहचर
और अपने को नयी व्याख्याएँ देनी चाही हैं
सखी-साधिका-बान्धवी-
माँ-वधू-सहचरी
और मैं बार-बार नये-नये रूपों में
उमड़- उम़ड कर
तुम्हारे तट तक आयी
और तुम ने हर बार अथाह समुद्र की भाँति
मुझे धारण कर लिया-
विलीन कर लिया-
फिर भी अकूल बने रहे

मेरे साँवले समुद्र
तुम आखिर हो मेरे कौन
मैं इसे कभी माप क्यों नहीं पाती?

-धर्मवीर भारती

Monday, September 26, 2011

यह कदंब का पेड़

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे

ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली

तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता

वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता

बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता

तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे

तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता

तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं

इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे
-सुभद्रा कुमारी चौहान

Friday, September 23, 2011

एक तिनका

मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ,
एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ,
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।

मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा,
लाल होकर आँख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे,
ऐंठ बेचारी दबे पॉंवों भागने लगी।

जब किसी ढब से निकल तिनका गया,
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा,
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।
- अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

Tuesday, September 20, 2011

शहीदों की चिताओं पर


उरूजे कामयाबी पर कभी हिन्दोस्ताँ होगा
रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियाँ होगा

चखाएँगे मज़ा बर्बादिए गुलशन का गुलचीं को
बहार आ जाएगी उस दम जब अपना बाग़बाँ होगा

ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ ख़ंजरे क़ातिल
पता कब फ़ैसला उनके हमारे दरमियाँ होगा

जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दे वतन हरगिज़
न जाने बाद मुर्दन मैं कहाँ औ तू कहाँ होगा

वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है
सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तिहाँ होगा

शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा

कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा
- जगदंबा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’

Saturday, September 17, 2011

अकाल और उसके बाद

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त ।


दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद ।
- नागार्जुन

Wednesday, September 14, 2011

अगर प्‍यार में और कुछ नहीं

अगर प्‍यार में और कुछ नहीं
केवल दर्द है फिर क्‍यों है यह प्‍यार ?
कैसी मूर्खता है यह
कि चूंकि हमने उसे अपना दिल दे दिया
इसलिए उसके दिल पर
दावा बनता है,हमारा भी
रक्‍त में जलती ईच्‍छाओं और आंखों में
चमकते पागलपन के साथ
मरूथलों का यह बारंबार चक्‍कर क्‍योंकर ?

दुनिया में और कोई आकर्षण नहीं उसके लिए
उसकी तरह मन का मालिक कौन है;
वसंत की मीठी हवाएं उसके लिए हैं;
फूल, पंक्षियों का कलरव सबकुछ
उसके लिए है
पर प्‍यार आता है
अपनी सर्वगासी छायाओं के साथ
पूरी दुनिया का सर्वनाश करता
जीवन और यौवन पर ग्रहण लगाता

फिर भी न जाने क्‍यों हमें
अस्तित्‍व को निगलते इस कोहरे की
तलाश रहती है
- रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Monday, September 12, 2011

मेरे प्रिय

मेरे प्रिय...!
मेरे प्रिय का सब ही अभिनंदन करते हैं
मेरे प्रिय को सब ही सुंदर कहते हैं
मैं लज्जा से अरुण, गर्व से भर जाती हूँ
मेरे प्रिय सुंदर शशि से मृदु-मृदु हँसते हैं !

वे जब आते लोग प्रतीक्षा करते रहते हैं
जा चुकने पर कथा उन्हीं की सब कहते हैं
मेरे गृह पर वे प्रवेश पाने की विनती--
बहुत समय तक कर चुपचाप खड़े रहते हैं !

मेरे प्रिय बसंत-से फूलों को लाते हैं
लोग उन्हें लख भौंरों से गुँजन गाते हैं
वे उन सब को भूल कुंज पर मेरे आते
मेरे फूल न लेने पर प्रिय अकुलाते हैं !

वे जब होते पास न मैं कुछ भी कहती हूँ
वे जब होते पास न मैं उन को लखती हूँ
वे जब जाते चले निराश साँस भर-भर के
उनकी ही आशा से मैं जीवित रहती हूँ !


-चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

Saturday, September 10, 2011

सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे

आने पर मेरे बिजली-सी कौंधी सिर्फ तुम्हारे दृग में
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे !

मैं आया तो चारण-जैसा
गाने लगा तुम्हारा आंगन;
हंसता द्वार, चहकती ड्योढ़ी
तुम चुपचाप खड़े किस कारण ?
मुझको द्वारे तक पहुंचाने सब तो आये, तुम्हीं न आए,
लगता है एकाकी पथ पर मेरे साथ तुम्हीं होओगे !

मौन तुम्हारा प्रश्न चिन्ह है,
पूछ रहे शायद कैसा हूं
कुछ कुछ बादल के जैसा हूं;
मेरा गीत सुन सब जागे, तुमको जैसे नींद आ गई,
लगता मौन प्रतीक्षा में तुम सारी रात नहीं सोओगे !

तुमने मुझे अदेखा कर के
संबंधों की बात खोल दी;
सुख के सूरज की आंखों में
काली काली रात घोल दी;
कल को गर मेरे आंसू की मंदिर में पड़ गई ज़रूरत
लगता है आंचल को अपने सबसे अधिक तुम ही धोओगे !

परिचय से पहले ही, बोलो,
उलझे किस ताने बाने में ?
तुम शायद पथ देख रहे थे,
मुझको देर हुई आने में;
जगभर ने आशीष पठाए, तुमने कोई शब्द न भेजा,
लगता है तुम मन की बगिया में गीतों का बिरवा बोओगे!
-रामावतार त्यागी

Wednesday, September 7, 2011

शोले ही सही आग लगाने के लिये आ

शोले ही सही आग लगाने के लिये आ
फिर तूर के मंज़र को दिखाने के लिये आ

ये किस ने कहा है मेरी तक़दीर बना दे
आ अपने ही हाथों से मिटाने के लिये आ

ऐ दोस्त मुझे गर्दिश-ए-हालात ने घेरा
तू ज़ुल्फ़ की कमली में छुपाने के लिये आ

दीवार है दुनिया इसे राहों से हटा दे
हर रस्म मुहब्बत की मिटाने के लिये आ

मतलब तेरी आमद से है दरमाँ से नहीं
"हसरत" की क़सम दिल ही दुखाने के लिये आ

-हसरत जयपुरी

Sunday, September 4, 2011

है नमन उनको

है नमन उनको कि जो यशकाय को अमरत्व देकर
इस जगत मैं शौर्य की जीवित कहानी हो गए हैं.
है नमन उनको कि जिनके सामने बौना हिमालय
जो धरा पर गिर पड़े, पर आसमानी हो गए हैं

पिता, जिनके रक्त ने उज्जवल किया कुल-वंश-माथा
माँ, वही जो दूध से इस देश की रज तोल आई
बहन, जिसने सावनों में भर लिया पतझड़ स्वयं ही
हाथ ना उलझें कलाई से जो राखी खोल लाई
बेटियाँ जो लोरियों में भी प्रभाती सुन रही थीं
"पिता' तुम पर गर्व है चुपचाप जा कर बोल आई
प्रिया, जिसकी चूड़ियों में सितारे से टूटते हैं
मांग का सिन्दूर देकर जो सितारे मोल लाई
है नमन उस देहरी को जहां तुम खेले कन्हैया
घर तुम्हारे, परम तप की राजधानी हो गए हैं
है नमन उनको कि जिनके सामने बौना हिमालय
जो धरा पर गिर पड़े पर आसमानी हो गए हैं

हमने भेजे हैं सिकंदर सर झुकाए, मात खाए
हमसे भिड़ते हैं वे, जिनका मन, धरा से भर गया है
नरक मैं तुम पूछना अपने बुजुर्गों से कभी भी
उनके माथे पर हमारी ठोकरों का ही बयान है
सिंह के दांतों से गिनती सीखने वालों के आगे
शीश देने की कला मैं क्या अजब है क्या नया है
जूझना यमराज से आदत पुराणी है हमारी
उत्तरों की खोज मैं फिर एक नचिकेता गया है
है नमन उनको कि जिनकी अग्नि से हारा प्रभंजन
काल-कौतुक जिनके आगे पानी-पानी हो गए हैं
है नमन उनको कि जिनके सामने बौना हिमालय
जो धरा पर गिर पड़े पर आसमानी हो गए हैं

लिख चुकी है विधि तुम्हारी वीरता के पुण्य लेखे
विजय के उद्घोष गीता के कथन तुमको नमन है
राखियों की प्रतीक्षा, सिन्दूरदानों की व्यथाओं
देशहित प्रतिबद्ध यौवन के सपन, तुमको नमन है
बहन के विश्वास भाई के सखा कुल के सहारे
पिता के व्रत के फलित, माँ के नयनं, तुमको नमन है
कंचनी-तन, चांदनी-मन, आह, आंसू, प्यार, सपने
राष्ट्र के हिट कर चले सब कुछ नमन तुमको नमन है
है नमन उनको कि जिनको काल पाकर हुआ पावन
शिखर जिनके चरण छूकर और मानी हो गए हैं
है नमन उनको कि जिनके सामने बौना हिमालय
जो धरा पर गिर पड़े पर आसमानी हो गए हैं


- कुमार विश्वास

Thursday, September 1, 2011

रेत पर नाम लिखने से

रेत पर नाम लिखने से क्या फायदा, एक आई लहर कुछ बचेगा नहीं।
तुमने पत्थर सा दिल हमको कह तो दिया पत्थरों पर लिखोगे मिटेगा नहीं।
मैं तो पतझर था फिर क्यूँ निमंत्रण दिया
ऋतु बसंती को तन पर लपेटे हुये,
आस मन में लिये प्यास तन में लिये
कब शरद आयी पल्लू समेटे हुये,
तुमने फेरीं निगाहें अँधेरा हुआ, ऐसा लगता है सूरज उगेगा नहीं।

मैं तो होली मना लूँगा सच मानिये
तुम दिवाली बनोगी ये आभास दो,
मैं तुम्हें सौंप दूँगा तुम्हारी धरा
तुम मुझे मेरे पँखों को आकाश दो,
उँगलियों पर दुपट्टा लपेटो न तुम, यूँ करोगे तो दिल चुप रहेगा नहीं।

आँख खोली तो तुम रुक्मिणी सी लगी
बन्द की आँख तो राधिका तुम लगीं,
जब भी सोचा तुम्हें शांत एकांत में
मीरा बाई सी एक साधिका तुम लगी
कृष्ण की बाँसुरी पर भरोसा रखो, मन कहीं भी रहे पर डिगेगा नहीं।

- डा. विष्णु सक्सेना